देहरादूनं। उत्तराखंड में पंचायत चुनाव करीब एक साल की देरी के बाद आखिरकार दो सप्ताह में शुरू हो रहे हैं। लेकिन मध्य हिमालयी पट्टी के तीन वन रावत बहुल गांवों वाले खेतार कन्याल ग्राम सभा में अनुसूचित जनजाति (एसटी) महिला के लिए आरक्षित ग्राम प्रधान की सीट लगभग निश्चित रूप से खाली रहने वाली है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस समुदाय की कोई भी महिला न्यूनतम कक्षा 8 की योग्यता पूरी नहीं करती।
यह स्थिति वन रावत समुदाय की महिलाओं के लिए शिक्षा की गहरी असमानताओं को उजागर करती है। खेतार कन्याल ग्राम सभा में कुल 1,200 से अधिक की आबादी है, जिसमें अधिकांश वन रावत आदिवासी हैं। यहां की महिलाओं की शिक्षा प्राथमिक स्तर (कक्षा 5) तक ही सीमित है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, समुदाय की कोई भी महिला कक्षा 8 या उसके ऊपर की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाई है। पंचायत चुनाव के नियमों के तहत उम्मीदवारों को कम से कम 21 वर्ष की आयु होनी चाहिए, स्थानीय मतदाता सूची में नाम दर्ज होना चाहिए और न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता कक्षा 8 पास होना अनिवार्य है। इन सभी शर्तों का संयोजन इस ग्राम सभा की पूरी पात्र महिला आबादी को अयोग्य ठहरा देता है।
वन रावत समुदाय, जो उत्तराखंड के सबसे अलग-थलग और विशेष रूप से संरक्षित जनजातीय समूहों (पीवीटीजी) में से एक है, मुख्य रूप से पिथौरागढ़ और चंपावत जिलों के दुर्गम जंगलों में रहता है। इन क्षेत्रों में पहुंच मुश्किल होने के कारण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव है। स्थानीय निवासी और सामाजिक कार्यकर्ता बताते हैं कि आर्थिक मजबूरियां, लंबी दूरी तय कर स्कूल पहुंचना और सांस्कृतिक बाधाएं महिलाओं की शिक्षा को सबसे अधिक प्रभावित करती हैं। एक स्थानीय वन रावत महिला ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “हमारे यहां लड़कियां छोटी उम्र में ही घर के कामकाज और खेती-बाड़ी में लग जाती हैं। स्कूल जाना सपना ही रह जाता है।”
राज्य निर्वाचन आयोग के अनुसार, यदि कोई पात्र उम्मीदवार न मिलने पर सीट आरक्षित श्रेणी में खाली रह सकती है। लेकिन यह आरक्षण प्रयासों के बावजूद शैक्षणिक बाधाओं को रेखांकित करता है। उत्तराखंड सरकार ने हाल के वर्षों में आदिवासी क्षेत्रों में छात्रावास और छात्रवृत्ति योजनाओं को बढ़ावा दिया है, लेकिन जमीनी स्तर पर बदलाव धीमा है।
आरक्षण मानदंड संशोधित न होने तक रिक्ति नहीं भरी जा सकती
देहरादून। शिक्षा प्राथमिक स्तर पर थम जाती है, अवसर भी वहीं समाप्त वन रावत महिलाओं की शिक्षा का स्तर प्राथमिक कक्षाओं तक ही सीमित रहने से न केवल पंचायती राज व्यवस्था प्रभावित हो रही है, बल्कि समुदाय का समग्र विकास भी रुक गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि आरक्षण नीतियां तब तक अपूर्ण रहेंगी, जब तक शैक्षणिक योग्यता के मानदंडों को समुदाय-विशिष्ट वास्तविकताओं के अनुरूप संशोधित न किया जाए। पिथौरागढ़ जिले के एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने बताया, “वन रावत जैसे पीवीटीजी समुदायों के लिए कक्षा 8 की योग्यता एक बड़ी बाधा है। यहां लड़कियों का ड्रॉपआउट रेट 90 प्रतिशत से अधिक है। यदि मानदंडों में छूट दी जाए, जैसे प्राथमिक शिक्षा तक सीमित करना, तो अधिक महिलाएं भाग ले सकेंगी। लेकिन वर्तमान नियमों के तहत रिक्ति को भरा नहीं जा सकता।” राज्य सरकार ने इस मुद्दे पर विचार-विमर्श शुरू किया है, लेकिन कोई ठोस कदम अभी तक नहीं उठाया गया। हालांकि, बदलाव के संकेत भी दिख रहे हैं। 2023 में, मनीषा राजवार उत्तराखंड की पहली वन रावत महिला बनीं, जिन्होंने देहरादून के एक आवासीय स्कूल से बीएससी नर्सिंग की डिग्री हासिल की। वर्तमान में चंपावत में रहने वाली मनीषा सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरी की तैयारी कर रही हैं। उन्होंने कहा, “मेरा सफर आसान नहीं था। लेकिन अगर सरकार और एनजीओ मिलकर काम करें, तो हमारी बेटियां ऊंचाइयों को छू सकती हैं।” यह घटना न केवल स्थानीय स्तर पर एक चुनौती है, बल्कि पूरे देश में आदिवासी महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए एक सबक भी। पंचायत चुनावों के माध्यम से आरक्षित सीटें महिलाओं को नेतृत्व का अवसर प्रदान करती हैं, लेकिन बिना शिक्षा के यह अवसर व्यर्थ साबित हो रहा है। विशेषज्ञ सुझाव दे रहे हैं कि सरकार को तत्काल हस्तक्षेप करना चाहिएकृजैसे मोबाइल शिक्षा इकाइयां, प्रोत्साहन राशि और जागरूकता अभियानकृताकि आने वाले चुनावों में ऐसी रिक्तियां न रहें।